Friday 6 July, 2007

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब नः माँग

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब नः माँग
मैंने समझा था केः तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दह्र का झगडा क्या है?
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ नः था मैं न फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कुचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए,ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकस है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे?
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब नः माँग

1 comment:

Amit K Sagar said...

फैज़ साहब को भी हमने पढा है सचमुच बहुत ही उम्दा तारिखीं हैं इनकी...आपका ये प्रयास प्रशंसनीय. शुभकामनाएं.
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ultateer.blogspot.com